वे लोग -\n\nअम्मा ने सिर उठा कर एक बार मेरी तरफ़ देखा था फिर मामा की तरफ़, “दद्दा, इन को अपने पास रख लो और अपने बच्चों की तरह पढ़ा लिखा कर इन्सान बना दो, नहीं तो वहाँ गाँव में रहते यह भी..." और उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में आँसू भरने लगे थे । “अपनी तो झेल ली इनकी नहीं झेल पाऊँगी।" अम्मा जैसे मामा से भीख माँग रही हों।\n\nवर्षों बाद चन्दर को मैं अपने साथ ले आयी थी-पढ़ा-लिखा कर इंसान बनाने के लिए। अम्मा अक्सर कहती थीं “बेटा तुमने और दद्दा ने तो हमें गंवई गाँव के श्राप से मुक्त कर दिया।"\n\nआज सोचती हूँ कि अपने अन्तिम दिनों में अम्मा तो और अधिक श्रापग्रस्त थीं-उस अँधेरे गाँव में अकेली और परित्यक्त। शायद वे ज़िन्दगी की दौड़ में अपने बच्चों से बहुत पिछड़ चुकी थीं। इतनी लम्बी ज़िन्दगी वे गाँव में रह कर भी गाँव में अपने होने को नकारती रहीं। कितनी अजीब बात है कि जब उनके दोनों बच्चे शहर में सफल जीवन जीने लगे तब उनके हालातों ने पूरी तरह से उन्हें गाँव में पहुँचा दिया था। उनके पास सारे विकल्प ख़त्म हो चुके थे ।\n\nज़िन्दगी में सारी सम्भावनाओं के खत्म हो जाने पर खुद को कैसा लगता होगा। कैसा लगता होगा जब कोई सपना बचा ही न हो। तब शायद मन के काठ हो जाने के अलावा कुछ भी तो शेष नहीं रहता। मैं जानती हूँ कि अम्मा धीरे-धीरे काठ बन गयी थीं-घर की मेज़-कुर्सी, खिड़की दरवाज़ों की तरह।
सुमति सक्सेना लाल - लखनऊ के एक महाविद्यालय 'नारी शिक्षा निकेतन' में सैंतीस वर्षों तक दर्शन शास्त्र पढ़ाने के बाद अब आज़ाद हैं। सन् 1969 में धर्मयुग में पहली कहानी छपी थी। उसके बाद पाँच वर्षों तक निरन्तर धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका आदि पत्रिकाओं में कहानियाँ छपती रहीं। फिर अनायास ही लेखन में तीस वर्षो का लम्बा व्यवधान आया। इतने वर्षों के बीच में सिर्फ़ एक कहानी 1981 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में दूसरी शुरुआत नाम से छपी थी। चर्चित कथाकार महीप सिंह जी के द्वारा सम्पादित कहानी-संग्रह 1981 की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ संग्रह में इस कहानी को सम्मिलित किया गया था । सन् 2004 से अनायास पुनः लिखने और छपने का सिलसिला शुरू हुआ। नया ज्ञानोदय, हंस, कथादेश, समकालीन भारतीय साहित्य, आदि सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ छपी हैं। अनेक कहानियों का मराठी और अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। सन् 2006 में भारतीय ज्ञानपीठ से कहानी-संग्रह अलग अलग दीवारें, और पैंगुइन यात्रा बुक्स से दूसरी शुरुआत नाम से एक कहानी संग्रह 2007 में प्रकाशन के लिए स्वीकृत हुआ था जो 2009 और 2011 में छपे । सन् 2013 में सामयिक बुक्स से होने से न होने तक नाम से एक उपन्यास छप चुका है। नवम्बर 2019 में सामयिक से ही एक उपन्यास फिर... और फिर शीर्षक से बाज़ार में आया है। 2018 में अमन प्रकाशन से ठाकुर दरवाज़ा नाम से उपन्यास आया है। अनेक कहानियों के साथ ही होने से न होने तक उपन्यास का मराठी भाषा में अनुवाद हो चुका है। मो. : 9558812148 ई-मेल : sumati1944@gmail.com
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