Vigyapan Dot Com

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मीडिया और मनोरंजन जगत में अपना वर्चस्व क्षेत्र स्थापित करने वाले 'विज्ञापन' की सत्ता उसके विविधमुखी उद्देश्यों पर टिकी है। उसका इतिहास न केवल इन सन्दर्भों को उजागर करता है, बल्कि उसके बढ़ते प्रसार क्षेत्र को समझने की अंतर्दृष्टि भी देता है। प्रस्तुत अध्ययन में उसके सैद्धांतिक पक्ष का विवरण देते हुए उसकी बदलती अवधारणाओं, इतिहास और वर्गीकरण का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है।\n\nविज्ञापन निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है। मीडिया अध्ययन की कक्षाओं में हम साधारणतः विद्यार्थियों को विज्ञापन बनाने का काम सौंप देते हैं। विषय और भाषा में दक्षता रखने वाले विद्यार्थी भी ऐसे समय पर चूक जाते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही यहाँ विज्ञापन निर्माण प्रक्रिया को अत्यन्त विस्तारपूर्वक समझाया गया है। एक माध्यम से दूसरे माध्यम की आवश्यकताएँ भी भिन्न होती हैं। माध्यम के आधार पर विज्ञापन निर्माण में कई फेर-बदल करने पड़ते हैं। उन सब विशिष्टताओं को आधार बनाकर ही यहाँ विज्ञापन संरचना के रचनात्मक बिन्दुओं को उकेरा गया है। यह स्पष्टीकरण भी आवश्यक है कि यह पूरी निर्माण-प्रक्रिया की जानकारी विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों से हुई सीधी बातचीत पर आधारित है। इसके लिए मैं लो इंडिया विज्ञापन एजेंसी के श्री देवप्रिय दाम...\n\n...की विशेष रूप से आभारी हूँ जिन्होंने मेरे लिए इस क्षेत्र को सुगम बनाया।\n\nएक समस्या यह भी रही कि विज्ञापन का क्षेत्र अत्यन्त गतिशील है। हर क्षण कुछ न कुछ बदल रहा है। इसलिए आज जो उदाहरण दिए गये वे कल पुराने पड़ जाएँगे। आज जिन सर्जनात्मक नीतियों की विलक्षणता को सराहा जा रहा है वह जल्द ही ब्बासी होकर चुक जाएँगी। पुस्तक के लिखते-लिखते भी यह परिवर्तन सामने आए। डेरी मिल्क का स्लोगन 'कुछ मीठा हो जाए' जिसे बार-बार पुस्तक में उद्धृत किया गया है पुस्तक के प्रकाशित होने से पूर्व ही नयी सृजनात्मक नीति के तहत उसे बदलकर डेरी मिल्क को 'शुभारम्भ' से जोड़ दिया गया। इसी तरह अनुजा चौहान जो 'जे. डब्ल्यू.टी.' की वाइस प्रेसिडेंट थीं छुट्टी पर चली गयीं और इस बीच उनका दूसरा उपन्यास 'बैटल फॉर बिटोरा' प्रकाशित हुआ। पुस्तक में पूरी सूचना दी जाए और सही सूचना दी जाए इसका आग्रह रहने पर भी जब तक पुस्तक पाठक के हाथों में पहुँचेगी कुछ और तथ्य भी बदल जाएँगे। उन स्थितियों पर किसी का कोई वश नहीं है। यह परिवर्तनशीलता ही विज्ञापन जगत को इतना चुनौतीपूर्ण बनाती है। इस चुनौती को पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश की है, इसी का संतोष है।

डॉ. रेखा सेठी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से एम.ए., एम.फिल. तथा पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता तथा कहानी उनके विशेष अध्ययन क्षेत्र रहे हैं। मीडिया के विविध रूपों में उनकी सक्रिय भागीदारी और दिलचस्पी रही है। पाँच वर्ष तक उन्होंने मीडिया सम्बन्धित पाठ्यक्रम पढ़ाये हैं। 'जनसत्ता' में उनकी लिखी पुस्तक समीक्षाएँ नियमित रूप से छपती रही हैं। इनके अतिरिक्त 'हंस', 'नया ज्ञानोदय', 'पूर्वग्रह', 'संवेद', 'सामयिक मीमांसा', 'संचेतना', 'Book Review', 'Indian Literature' आदि पत्रिकाओं में भी उनके आलोचनात्मक लेख व समीक्षाएँ प्रकाशित होते रहे हैं। अपनी लिखी समीक्षाओं में उन्होंने सदा इस बात पर बल दिया कि रचना को ही प्राथमिकता दी जाए। रचना के मर्म तक पहुँचकर रचनाकार के संवेदनात्मक उद्देश्यों की पहचान करना उनकी आलोचना का प्राण है। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख हैं 'व्यक्ति और व्यवस्थाः स्वांतत्र्योत्तर हिन्दी कहानी का संदर्भ', 'निबंधों की दुनियाः हरिशंकर परसाई' (संपादित), 'निबंधों की दुनियाः बालमुकुन्द गुप्त' (संपादित), 'हवा की मोहताज क्यों रहूँ' (इन्दु जैन की कविताएँ, सह संपादित), 'कालजयी हिन्दी कहानियाँ' (सह संपादित), 'समय के संग साहित्य' (सह संपादित)। आजकल वे इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हैं। ई-मेल reksethi@gmail.com

डॉ. रेखा सेठी

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