विश्वामित्र - \n'विश्वामित्र' ब्रजेश के. वर्मन का ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के धवल चरित्र को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है। विश्वामित्र की प्रचलित कथाओं के आशय को लेकर वाल्मीकि रामायण, नाना पुराणों, उपनिषदों का अवगाहन कर वर्मन ने एक ऐसे विश्वामित्र की रचना की है जो भारत को समरस समाज, समदर्शी न्याय व्यवस्था और सर्वजन हितकारी गणतन्त्र के रूप में देखना चाहता है। जिसकी समूची साधना और निष्काम तपोबल का महान लक्ष्य है— आर्यावर्त से आसुरी वृत्तियों का संहार। राम और लक्ष्मण उनके इस लक्ष्य में भागीदार बनते हैं और असुरों का संहार कर विश्वामित्र की आकांक्षा को गति देते हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि इस मिथकीय उपन्यास में कथा न्यून है। विश्वामित्र के आश्रम में राम-लक्ष्मण की दीक्षा से लेकर सीता स्वयंवर तक की कथा ही उपन्यास में है, पर अपनी तार्किकता, सामाजिक प्रतिबद्धता तथा समकालीन चिन्तनशीलता के कारण उपन्यासकार ने इस उपन्यास को प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था के भीतर स्वराज की स्थापना का विलक्षण विमर्श बनाया है।\nउपन्यास में गौतम ऋषि का अपराध बोध हो या अहल्या का प्रायश्चित्त, परशुराम की भारत-चिन्ता हो या देवराज इन्द्र की आसुरी वृत्तियाँ हों, मेनका के अपूर्व सौन्दर्य में छिपे कारुणिक प्रश्न हों या उसके सामने निरुत्तर खड़े ब्रह्मर्षि विश्वामित्र हों—यह उपन्यास नये कथासूत्रों के माध्यम से जीवन, समय और समाज पर जिन दृष्टियों से विचार करता है, वह महत्त्वपूर्ण है। अहल्या, इन्द्र और शची के प्रकरण नये सिरे से हमें दीक्षित करते हैं।\nउपन्यास की भाषा, सृजनात्मक कल्पना की सांस्कृतिक चेतना और अपने समय के स्वप्नों तथा आकांक्षाओं को आज के संघर्षों के भीतर रखकर देखने के कारण यह उपन्यास पठनीय और विचारणीय है।
ब्रजेश के. वर्मन - जन्म: मदरौनी, भागलपुर (बिहार)। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एम.ए. और एम.फिल.। छात्रसंघ, साहित्य, रंगकर्म और ललित कला में सक्रिय प्रतिभागिता। देश-विदेश में चित्रकला प्रदर्शनियों में भागीदारी। ललित कला अकादेमी के राष्ट्रीय पुरस्कार (सम्माननीय उल्लेख) से सम्मानित— 1994-95। ललित कला अकादेमी काउंसिल में सरकार के मनोनीत सदस्य रहे। संस्कृत, इतिहास और साहित्य में गहरी अभिरुचि। 'विश्वामित्र' प्रथम प्रकाशित उपन्यास।
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