यादों के शिलालेख : केबिन में सामने डॉ. भारती। आँखों पर मोटे फ़्रेमवाला काला चश्मा, चेहरे पर शालीन मुस्कान...पूरे व्यक्तित्व में एक संजीदी कशिश... खड़े होकर पति से हाथ मिलाते हैं और मेरी सलज्ज नमस्ते के जवाब में बैठने का संकेत करते हैं। अब नज़ारा ये कि लेखिका तो मैं, उपन्यास मेरा। क़ायदे से मिलने भी मैं ही आयी हूँ लेकिन बातें सिर्फ पति से ही की जा रही हैं... उनकी मल्टी नेशनल कम्पनी से लेकर इस नये शहर मुम्बई की रिहाइश तक, दुनिया जहान की बातें... सिगार झाड़ते हुए, कभी काले चश्मे का फ़्रेम ठीक करते हुए और कभी कुर्सी के पीछे अपनी विशिष्ट मुद्रा में गर्दन और पीठ टिकाते हुए-और मैं?...जैसे इस केबिन में हूँ ही नहीं...अपनी पहचान और अस्तित्व से हीन, अपनी औक़ात को कौड़ियों में तौल रही थी यह लेखिका(?) अन्ततः मेरे धैर्य की अग्नि परीक्षा समाप्त हुई। हम उठने को हुए तो मेरी तरफ मुड़े। भरपूर गहरी दृष्टि मुझ पर टिकाते हुए एक-एक शब्द (जैसे मुझे भी) तौलकर भरपूर आत्मीयता से बोले— "आपका उपन्यास मुझे काफी पसन्द आया। ख़ासकर सौतेली माँ और बच्चियों के बीच की प्रगाढ़ता को आपने जिस ऐंगिल से रेखांकित किया है। हम इसे 'धर्मयुग' में प्रकाशित करेंगे।...‘लेकिन'...” और इस लेकिन के बाद थोड़े ठहरे-से— “मैं चाहता हूँ, उपन्यास के तीसरे खण्ड को आप एक बार फिर देखकर तराश ले जायें..." | \n\nइतनी-सी देर में उत्तेजना का एक पूरा ब्रह्माण्ड डोल गया था, मेरे अन्दर। जाने कितने इन्द्रधनुषों ने पंख पसार दिये थे, कल्पना के आकाश में... कि इस ‘लेकिन' ने रंग में भंग डाल दिया। अनायास मैंने हिम्मत बटोरी और अपनी सहमी आवाज़ को भरपूर आत्मविश्वास से साधते हुए बोल गयी— “लेकिन मान लीजिए, मैं दुबारा देखने के बावजूद, आपकी अपेक्षानुसार न तराश पायी तो?..." “तो?” कहकर अर्थपूर्ण ढंग से वापस दृष्टि मुझ पर टिकाते हुए मुस्कराये— "तो हम इसे ऐसे ही छापेंगे।" कहते हुए उनके चेहरे पर छिटकी विनोदी वत्सल हँसी-‘कहई तुम्हार मरमु मैं जाना' की पुष्टि कर रही थी। यह अविस्मरणीय घटित था, मेरे लेखकीय जीवन का...और पहला साबका भारती जी की उस मुस्कान से जो जितनी खिलन्दड़ी थी, उतनी ही संजीदी....
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