आठवाँ रंग@ पहाड़-गाथा - \nउपन्यास में लेखक ने सामाजिक प्रश्नों को सजग दृष्टि से उठाया है। किसी भी धर्म के प्रति आग्रह और पक्षपात न दिखाकर मानव सम्बन्धों की कसौटी पर सभी की जड़ता और क्रूरता को लेखक ने गम्भीरता से परखा है। प्रदीप जिलवाने की भाषा अत्यन्त सजीव, संयत और साफ़-सुथरी है, जिसके कारण उपन्यास का सृजनात्मक पक्ष उभरकर सामने आता है।\nप्रदीप जिलवाने ने अपने पात्रों के माध्यम से समाज के उन काले यथार्थ पर सार्थक रोशनी डालने की कोशिश की है, जो बहुधा मनुष्य जीवन के अधरंग हिस्से में जड़ता बनकर काई की तरह चिपका रहता है और वह कभी उजागर नहीं होता है। कभी उसके सामने धर्म आड़े आ जाता है तो कभी जाति तो कभी वर्गभेद। वैसे देखा जाये तो जिलवाने ने इस उपन्यास के माध्यम से आदिवासी समाज के विनष्ट होते जा रहे जीवन को रेखांकित करने की भरपूर कोशिश की है। फिर भी शिकंजे में फँसे और पीड़ित मामूली आदमी की व्यथा-कथा अधूरी ही रह जाती है। लेकिन उपन्यास में लेखक यह बताने में सफल रहता है कि संस्थागत धर्म के लिए इन्सान अन्ततः अपनी शक्ति संरचना की मुहिम में एक औज़ार भर होता है।\nदरअसल, 'आठवाँ रंग@ पहाड़-गाथा' उपन्यास के बहाने मनुष्यता को अन्तिम और अनिवार्य धर्म रेखांकित करने की एक कोशिश है और वह भी बग़ैर किसी अन्य को ख़ारिज करते हुए।
प्रदीप जिलवाने - जन्म: 14 जून, 1978, खरगोन (म.प्र.)। शिक्षा: देवी अहिल्या विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए., पीजीडीसीए। फ़िलहाल म.प्र. ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण में कार्यरत। हिन्दी साहित्य की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित। निरंजन श्रोत्रिय द्वारा सम्पादित 'युवा द्वाद्वश', लीलाधर मंडलोई द्वारा सम्पादित 'स्त्री होकर सवाल करती है...' आदि विभिन्न कविता-संकलनों में कविताएँ शामिल एवं प्रकाशित। स्थानीय और लोकप्रिय पत्रों में सांस्कृतिक एवं समसामयिक विषयों पर आलेख प्रकाशित। ब्लॉग लेखन में सक्रिय। 'जहाँ भी हो जरा-सी सम्भावना' (कविता-संग्रह) के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित।
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