कठपुतलियाँ - \n'कठपुतलियाँ' युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ का दूसरा कहानी-संग्रह है। पहले कहानी-संग्रह 'बौनी होती परछाईं' के बाद मनीषा ऐसी युवा प्रतिभा के रूप में चर्चित हुईं जिनके पास कथ्य और कहन की निजी सम्पदा है। इस विश्वास को 'कठपुतलियाँ' संग्रह और अधिक सम्पुष्ट करता है। मनीषा की ये कहानियाँ जीवन को उसकी विभिन्न रचनाओं के साथ अनेक कोणों से पकड़ती हैं। भाषा में गहरी पैठ और संवेदना के महीन तानों-बानों से गँथी-बुनी ये रचनाएँ पाठक को अपने साथ धीरे-धीरे एक ऐसे अनुभव-जगत में ले चलती हैं, जहाँ उसकी चेतना की परिधि पर प्रेम, स्वप्न, लोकरंग और द्वन्द्व निरन्तर अपनी पूरी गत्यात्मकता के साथ उपस्थित रहते हैं। इन कहानियों में सूक्ष्म स्तर पर जहाँ सांस्कृतिक भूगोल की छवियाँ नज़र आती हैं, वहीं इस दौर के सांस्कृतिक समीकरणों में हो रही उथल-पुथल भी गोचर होती है।\nविगत कुछ वर्षों में अछूते विषयों को उठाते हुए मनीषा ने अपनी कहानियों की धार से पाठकों को चौंकाने के साथ आश्वस्त भी किया है। उनकी इन कहानियों में परम्परा और आधुनिकता की सक्षम सम्पृक्ति है। प्रस्तुत संग्रह की कहानी 'कठपुतलियाँ' का यह वाक्य इस संग्रह पर सटीक उतरता है—'कुछ मौलिक, कुछ अलग—जो जीवन को विस्तार दे।'
मनीषा कुलश्रेष्ठ - जोधपुर, राजस्थान में जन्म। शिक्षा: एम.ए., एम.फिल. (हिन्दी साहित्य)। प्रकाशन: 'बौनी होती परछाईं' कहानी-संग्रह। बहुचर्चित कहानी 'कठपुतलियाँ' साहित्य अकादेमी द्वारा आठ भाषाओं में अनूदित। बोर्खेज़, ममोदा, माया एंजलू की चुनी हुई कहानियों एवं उपन्यास अंशों का अनुवाद। कथालेखन के अतिरिक्त इंटरनेट पर और नया ज्ञानोदय में हिन्दी कम्प्यूटिंग पर निरन्तर स्तम्भ-लेखन। पिछले सात वर्षों से हिन्दी नेस्ट.कॉम नामक हिन्दी की वेब पत्रिका का सम्पादन। पुरस्कार/सम्मान: राजस्थान साहित्य अकादमी से वर्ष 1989 में सम्मानित। साहित्य अकादेमी, दिल्ली द्वारा 2006 में पहलगाँव में आयोजित अनुवाद कार्यशाला में भागीदारी। कृष्ण बलदेव वैद फ़ेलोशिप-2007 के अन्तर्गत चयन।
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