कुमारजीव - कुँवर नारायण अपने समय के श्रेष्ठतम कवियों में हैं। सृजन की मौलिकता और चिन्तन की विश्व दृष्टि द्वारा उन्होंने साहित्यिक परिदृश्य को बहुआयामी विस्तार दिया है और आधुनिक भारतीय साहित्य की वैश्विक श्रेष्ठता के मानकों की रचना की है। उनका यह नया काव्य भाषा, सन्दर्भ और चिन्तन की दृष्टियों से एक बड़ी उपलब्धि है। यह बौद्ध विचारक और विश्व के महानतम अनुवादकों में अग्रणी कुमारजीव के जीवन और कृतित्व पर आधारित है। कुमारजीव का जीवन वस्तुतः यात्राओं और अध्ययनों का इतिहास रहा है। चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध में जब इस विद्वान का तेज़ और यश देश-देशान्तर में फैलने लगा तो अपने पक्ष में करने के लिए सत्ताधारी और राजनीतिज्ञ बरबस उसकी ओर खिंचते चले आये। इस अर्थ में यह कृति आज की विडम्बना को सही परिप्रेक्ष्य देते हुए राजनीति और सत्ता को नैतिक आयाम देने की बुद्धिजीवी की भूमिका को रेखांकित करती है। कोई भी विचारक या कृतिकार अपने सांसारिक जीवन काल के उपरान्त भी अपनी कृतियों या विचारों के 'उप समय' में हमेशा जीवित रहता है। कुमारजीव के बहाने 'समय' और 'उप-समय' की इसी धारणा को यहाँ महत्त्व दिया गया है। कवि ने अपराजेय संकल्प-शक्ति वाले कुमारजीव के जीवन-प्रसंगों का अनुचिन्तन किया है और एक विचारक के भौतिक और परा-भौतिक समय को आमने-सामने रखकर उसके मनुष्य होने की सार्थकता को वरीयता दी है। कवि की दृष्टि में उच्च कोटि की रचनात्मकता भी एक आध्यात्मिक अनुभव की तरह है; अध्यात्म—जो धार्मिक या अधार्मिक नहीं होता बल्कि 'उदात्त' की दिशा में ऊर्जा का रूपान्तरण होता है। कुँवर नारायण ने जिस तरह भाषा के सम्पूर्ण वैभव का उपयोग करते हुए जीवन जगत की बहुविध अर्थच्छवियों को उजागर किया है और मानवीय मूल्यों को काव्यात्मक गरिमा प्रदान की है, वह कविता की वर्तमान और अगली पीढ़ियों के लिए एक दृष्टान्त है। निस्सन्देह ही यह कृति एक नये तरह से पाठकीय अनुभवों को समृद्ध करेगी।
कुँवर नारायण - कवि-चिन्तक कुँवर नारायण (1927-2017) ने छह दशकों तक फैले अपने लेखन में अध्ययन की व्यापकता, सरोकारों की विविधता और भाषा के सौन्दर्य बोध के कारण रचना और जीवन-दृष्टि को निरन्तर समृद्ध किया है। उनकी रचनाएँ वर्तमान इतिहास, समकाल-पुराकाल, राजनीति समाज, परिवार व्यक्ति, मानवता-नैतिकता के दुहरे आयामों को समेटती हैं। एक दुर्लभ संवेदनशीलता के चलते उन्होंने साहित्य की कई परम्पराओं के साथ जीवन्त संवाद कायम किया है। उनकी सृजनशील उपस्थिति हिन्दी समाज के लिए गहरी आश्वस्ति का विषय है। कुँवर नारायण मुख्यत: कवि हैं किन्तु साहित्य की दूसरी विधाओं में भी निरन्तर लिखते रहे हैं। अब तक कविता की उनकी दस पुस्तकों के अलावा चार आलोचना, एक कहानी-संग्रह, एक डायरी, दो साक्षात्कार और रचनाओं पर केन्द्रित छह संचयन प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक कृतियों के भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। उन्हें 'ज्ञानपीठ पुरस्कार', 'पद्मभूषण', रोम का 'प्रीमिओ फ़ेरोनिआ' और साहित्य अकादेमी की 'महत्तर सदस्यता' जैसे महत्त्वपूर्ण सम्मान मिल चुके हैं।
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