मुनव्वर ने अपने आपको सरमायादारी की उन लानतों से महफूज़ रक्खा है जिसकी वजह से लेनिन ने ख़ुदा के हुजूर में यह ख़्वाहिश की थी कि इसका सफ़ीना डूब जाये। मुनव्वर ने अपनी निजी ज़िन्दगी और ज़ेहन को इससे अलग रक्खा और इसे अपने ऊपर मुसल्लत नहीं होने दिया, बल्कि इसके बेहतर हुसूल के बावजूद इस सैलाब को अपने काबू में रखा, जो आता है तो सीरत और शख़्सियत, सबको अपने साथ बहा ले जाता है! मुनव्वर राना को इस दौर में महल न सही, बहुत आरामदेह ज़िन्दगी के सारे मौके मिले हैं, लेकिन इसके बावजूद अपनी ग़ज़लों में दरमियानी दर्जे की ज़िन्दगी के मसायल को पेश करना, उन्हें अपना पसन्दीदा मौजूं बनाना सिर्फ़ इस बात का सुबूत नहीं है कि मुनव्वर तरक्क़ीपसन्द शायर हैं, बल्कि यह तर्ज़े-फ़िक्र इस बात की दलील है कि मुशायरों में अपनी आँखों को ऊपर उठाये रखने वाला यह भी जानता है कि अपनी राहत के साथ-साथ ज़मीन पर बसने वाली तमाम मख़लूक़ की मुश्किलात को भी समझते रहना ज़रूरी है। इसी अन्दाज़े-नज़र ने उन्हें एक दर्दमन्द और ग़मख़्वार शायर बनाया है। -डॉ. मसूदुल हसन उस्मानी
मुनव्वर राना - मेरा जन्म 26 नवम्बर, 1952 को उत्तर प्रदेश के शहर रायबरेली में हुआ। रायबरेली जो मलिक मोहम्मद जायसी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मुल्ला दाऊद, राणा बेनी माधव, मौलाना अबुल हसन नदवी जैसी शख्सियतों की ख़ुश्बू से आज तक महकता है, सियासी तौर पर भी ये शहर फ़िरोज़ गाँधी, इंदिरा गाँधी और अब सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी से दीवानगी की हद तक मोहब्बत करता है। हमारे पूर्वज इस शहर की आलमगीरी मस्जिद में इमामत करते थे और बच्चों को उर्दू और हिन्दी पढ़ाते थे। आज भी पुराने शहर के लगभग सभी परिवारों के पूर्वज हमारे दादा और परदादा के पढ़ाये हुए हैं। बटवारे में हमारा दोहरा नुक़सान हुआ। क्योंकि हमारी तो ज़मीन भी गयी और खानदान भी चला गया। इस किताब को लिखते समय मुझे कितने दुखों से गुज़रना पड़ा होगा इसका अन्दाज़ा सिर्फ़ इस बात से लगाया जा सकता है कि मुझे डॉ. एपी मजूमदार और डॉ. कौसर उस्मान की निगरानी में कलकत्ता और लखनऊ के अस्पतालों में भर्ती होना पड़ा। इस किताब को लिखते समय 60-62 बरस से बटवारे के दहकते हुए अंगारों पर मुझे इतनी बार लोटना पड़ा है कि मेरी सोच की आत्मा पर भी उसके फफोले उभर आये। उम्र के 59 वें जीने पर खड़े होकर मैं सच्चाई के साथ ये बता देना चाहता हूँ कि ये कुछ यादों के फफोले हैं जो इस किताब के काग़ज़ पर शायरी की सूरत में उभर आये हैं। यादों की इस अधजली एलबम को आप तक पहुँचाने के लिए हम अपने छोटे भाई और बेटे जैसे श्री उपेन्द्र राय और सहारा इंडिया परिवार के आभारी हैं।
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