रोशनी किस जगह से काली है - \nफ़ज़ल ताबिश उर्दू के बड़े शायर हैं। उनकी शायरी उर्दू में मुक़म्मल स्थान रखती है। उसका हिन्दी लिप्यान्तरण पहली बार छप रहा हो, ऐसी बात नहीं है। मगर यह ज़रूर है कि वह हिन्दी पाठकों के समक्ष व्यापक रूप से पहली बार इनका इज़ाफ़ा हो रहा है। नज़्म हो या ग़ज़ल ताबिश की शायरी में वक़्त का धड़कता हुआ पैमाना है, जिसमें ज़िन्दगी अपनी कई ख़ूबियों के साथ मौजूद है।\nफ़ज़ल ताबिश की ग़ज़लों में एक मासूम उदासी है, मगर बेरुखी नहीं है। उमड़ता हुआ ख़्वाब, एक चुभता हुआ शीशा है जो दिल में जज़्ब होता है, एक टहलती हुई हवा का झोंका जो ख़ुद को दुलार लेता है। फ़ज़ल की शायरी की पच्चीकारी शब्दों में नहीं दिखती, मगर संवेदना के स्तर पर बहुत बारीक़ दिखती है। फ़ज़ल जहाँ से खड़े होकर दीन-दुनिया को देखते हैं, उसे उनकी शायरी को बार-बार पढ़ने और समझने से ही समझा जा सकता है।
फ़ज़ल ताबिश - जन्म: 4 अगस्त, 1933 में। भोपाल की हिन्दी उर्दू दुनिया के महत्त्वपूर्ण सेतु थे। 1969 में उर्दू में एम.ए. करने के बाद वे लेक्चरर हो गये। 1980 से 1991 मध्य प्रदेश शिक्षा विभाग से पेंशन पाकर रिटायर हुए। प्रमुख कृतियाँ: 'बिना उन्वान', 'डरा हुआ आदमी', 'अखाड़े के बाहर से', 'फ़रीउद्दीन अत्तार की मसनवी' (नाटक); 'अजनबी नहीं' (ग़ज़लों और नज़्मों का संग्रह); 'दीवाना बन कर यह सन्नाटा', 'अंजुमन में', 'गाँव में अलाव में', 'मैं अकेला', 'धूप के पाँव', 'अभी सूरज'। प्रेमचन्द के उपन्यास कर्मभूमि का ड्रामा अनुवाद, रूपान्तर डेनिश ड्रामा द जज का उर्दू अनुवाद। सम्मान: 'मिनिस्ट्री ऑफ़ साइंटिफिक रिसर्च ऐंड कल्चरल अफेयर्स' का उर्दू भाषा का पहला पुरस्कार 1962 में। आपने शायरी, कहानियाँ, अनुवाद, नाटक और एक अधूरा आत्मकथात्मक उपन्यास सभी कुछ लिखा है। उनके नाटकों का ब.व. कारंत जैसे विख्यात निर्देशकों द्वारा मंचन किया गया। इसके अतिरिक्त आपने मणिकौल की फ़िल्म 'सतह से उठता आदमी' और कुमार साहनी की फ़िल्म 'ख़्याल गाथा' में भी काम किया।
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