युद्ध और बुद्ध - \nवरिष्ठ कथाकार मधु कांकरिया की कहानियाँ हमारे समय का यथार्थ उजागर करती हैं। वे जिस किसी कथ्य में भी जाती हैं, उसमें बहुत गहरे अन्दर तक पैठ कर पाठकों को जानकारियाँ उपलब्ध कराती हैं। कहानी का सत्य अपने असली रूप में हमारे समक्ष स्वतः आने लगता है।\nउनकी शीर्षक कहानी 'युद्ध और बुद्ध' को ही लें। यह कहानी कश्मीर में फैले आतंकवाद पर लिखी है। सीमा पार से प्रायोजित यह आतंकवाद कश्मीरियों के घर-घर में इस क़दर फैलाया गया था कि हमारी फ़ौज को भी अपनी पहचान छिपाकर उनके बीच रहना बसना पड़ता था, ऑपरेशन को सफल अंजाम तक पहुँचाने के लिए विभिन्न जानकारियाँ जुटानी पड़ती थीं।\nस्थिति इतनी भयावह हो चुकी थी कि अपने छोटे तीन बच्चों की जान बचाने के लिए एक माँ को ख़ुद अपने बड़े बेटे के सीमा पार से आने की मुखबरी फ़ौज को करनी पड़ती है। एक माँ का दर्द पाठक को हृदय तक तब झकझोरकर रख देता है जब वह उसके लिए लाये गये उसकी पसन्द के दस लेनमचूसों से आठ निकालकर एक फ़ौजी को दिखलाती है और कहती है—इंकाउंटर से पहले उसने केवल दो लेमनचूस खाये थे।\nमधु कांकरिया के अपने समय की कुछ चुनिन्दा कालजयी कहानियों का यह संग्रह पाठकों को निश्चय ही पसन्द आयेगा।
मधु कांकरिया - जन्म: 23 मार्च, 1957। शिक्षा: एम.ए. (अर्थशास्त्र), कम्प्यूटर विज्ञान में डिप्लोमा। प्रकाशित कृतियाँ —— उपन्यास : खुले गगन के लाल सितारे, सलाम आख़िरी, पत्ता खोर, सेज पर संस्कृत, सूखते चिनार; कहानी-संग्रह: बीतते हुए, और अन्त में ईसु, चिड़िया ऐसे मरती है, भरी दोपहरी के अँधेरे (प्रतिनिधि कहानियाँ); सामाजिक विमर्श: अपनी धरती अपने लोग। 'रहना नहीं देश विराना है' पर प्रसार भारती द्वारा टेलीफ़िल्म का निर्माण । सम्मान: कथाक्रम पुरस्कार (2008), विजय वर्मा कथा सम्मान (2012), हेमचन्द्र स्मृति साहित्य सम्मान (2009), अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच द्वारा समाज गौरव सम्मान (2009)।
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